आयुर्वेद

 आयुर्वेद का इतिहास करोड़ों वर्ष पुराना है। फिर भी इसे केवल 5000 साल पुराना क्यों बता रहे हैं। क्या ये बात सही है कि विश्व ने चिकित्सा पध्दति भारत से सीखी। महर्षि चरक के अलावा आयुर्वेद में अनेकों आयुर्वेदाचार्य वैद्य गण हुए। इनका गयं-विज्ञान और योगदासन अतुलनीय रहा है। इसमें महर्षि अगस्त्य और दशानन रावण भिवस्मर्णीय है आयुर्वेद तथा शल्य-चिकित्सा शास्त्र के आचार्य गणों का सम्पूर्ण जीव- जगत् पर महान् उपकार है,

आयुर्वेद का इतिहास एक समृद्ध अतीत से भरा हुआ है, समृद्ध है और पुरातनताओं में गहराई से बैठा है। वेदों में आयुर्वेद नामक एक शाखा भी शामिल है जिसका अर्थ है “जीवन का विज्ञान”। इस प्रकार आयुर्वेद की यात्रा सबसे पुरानी और समग्र उपचार पद्धति के रूप में शुरू हुई। आयुर्वेद के इतिहास में कहा गया है कि इस प्राचीन विद्या का इलाज, रोग को रोकने और लंबे जीवन को रोकने के लिए प्राचीन प्राचीनता में डूबा हुआ भारत में एक सार्वभौमिक धर्म की आध्यात्मिक परंपरा का एक हिस्सा था, इससे पहले कि इसे नीचे रखा गया था।

आयुर्वेद की उत्पत्ति
भारत में आयुर्वेद का मूल धर्म, हिंदू धर्म जितना पुराना है। इन पुस्तकों को चार वेदों के रूप में जाना जाता है; ऋग्वेद, साम वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद। आयुर्वेद, अथर्ववेद से जुड़ा एक उप खंड था और इसे ऋग्वेद के उपवेद के रूप में माना जाता है और अथर्ववेद के अंतःवेद (आंतरिक भाग) के रूप में माना जाता है। आयुर्वेद का इतिहास यह दावा करता है कि इस उप खंड ने बीमारियों, चोटों, असुरक्षा, पवित्रता और स्वास्थ्य और जीवन के सभी रहस्यों, स्वस्थ रहने के तरीकों, ऋग्वेद में बताए गए रोगों से बचाव के तरीके बताए। ऋग्वेद त्रिदोषों पर चर्चा करता है – वात, पित्त और कफ और विभिन्न जड़ी बूटियों का उपयोग रोगों को ठीक करने के लिए। पंचभूत, सृष्टि के पांच तत्व – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, ब्रह्माण्ड जो ब्रह्माण्ड का आधार बनते हैं, वे भी समस्त सृष्टि का आधार हैं – यह आयुर्वेद का बहुत ही सार है जिसमें त्रिगुण नामक आयुर्वेदिक ज्ञान के तीन पहलू हैं। -सूत्र जिसमें बीमारी, बीमारी के लक्षण और उपचार शामिल हैं।

आयुर्वेद के महापुरूष
आयुर्वेद का इतिहास इस प्राचीन विज्ञान की खगोलीय उत्पत्ति की ओर भी संकेत करता है, जो कभी भारतीय संतों और ऋषियों को सूचित किया गया था। मिथकों से पता चलता है कि धन्वंतरि, जिन्होंने बाद में आयुर्वेद को लिखा था, उन्होंने इसे ऋषियों को पढ़ाया था। एक अन्य किंवदंती के अनुसार, चिकित्सा का ज्ञान भगवान ब्रह्मा से उत्पन्न हुआ, जिन्होंने इसे राजा दक्ष को सिखाया, जिन्होंने आगे भगवान इंद्र को सिखाया।

यह बेचैनी का समय था जब बीमारी और मौत कहर ढा रही थी और मानव के पास कोई जवाब नहीं था। यह वह समय था जब इस समस्या का हल खोजने के लिए सभी महान संत एकत्रित हुए। इस बैठक के दौरान ऋषि भारद्वाज आगे आए और उन्होंने भगवान इंद्र से आयुर्वेद के प्राचीन विज्ञान को सीखा। फिर उन्होंने ऐतरेय को यह विज्ञान पढ़ाया, जिन्होंने इस ज्ञान को पूरी दुनिया में पहुँचाया। आयुर्वेद का इतिहास बताता है कि बाद में, यह अग्निवेश था, आत्रेय के शिष्यों ने ‘अग्निवेश संहिता’ लिखा था जिसे आज भी आयुर्वेद का सबसे व्यापक रूप माना जाता है। 

आयुर्वेद चिकित्सा सेवा

 आयुर्वेद(आयुः+वेद) इन दो शब्दों के मिलने से बने आयुर्वेद शब्द का अर्थ है ''जीवन विज्ञान''। आयुर्वेद का प्रलेखन वेदों में वर्णित है। उसका विकास विभिन्न वैदिक मंत्रों से हुआ है, जिनमें संसार तथा जीवन, रोगों तथा औषधियों के मूल तत्व/दर्शन का वर्णन किया गया है। आयुर्वेद के ज्ञान को चरक संहिता तथा सुश्रुत संहिता में व्यापक रूप से प्रलेखित किया गया था। आयुर्वेद के अनुसार जीवन के उद्देश्‍यों-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति के लिए स्वास्थ्य पूर्वापेक्षित है। आयुर्वेद मानव के शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक और सामाजिक पहलुओं का पूर्ण समाकलन करता है, जो एक दूसरे को प्रभावित करते है। 

आयुर्वेद का तत्व ज्ञान पंचमहाभूतों के सिद्धांत पर आधारित है, जिनसे सभी वस्तुओं एवं जीवित शरीरों का निर्माण हुआ है। इन पंच तत्वों का संयोजन त्रिदोष के रूप में वर्णित है, उदाहरणतः वात (आकाश+वायु), पित्त (अग्नि + तेज) तथा कफ (जल+पृथ्वी)। ये तीनों दोष प्राणियों में पाए जाते है। मानसिक आध्यात्मिक गुण सत्व, रजस्‌ और तमस्‌ के रूप में वर्णित है। सत्व, रजस एवं तमस्‌ के विभिन्न परिवर्तन तथा मिश्रण मानव प्रकृति तथा व्यक्तित्व का गठन करते है। आयुर्वेद मानव शरीर को तीन दोषों , पांच तत्वों (पंच महाभूत), सात शरीर तंतु (सप्त धातु), पंच ज्ञानेन्द्रियों और पंचकर्मेन्द्रियों, मन (मनस्‌), ज्ञान (बृद्धि) तथा आत्मा (आत्मन्‌) का संयोजन मानता है। आयुर्वेद का सिद्धांत इनकी संरचना तथा क्रियाओं की संतुलित क्रिया शीलता को लक्ष्य मानता है जो अच्छे स्वास्थ्य का प्रतीक है। आंतरिक तथा बाह्रा घटकों में किसी प्रकार का असंतुलन रोग का कारण है तथा विभिन्न तकनीकों, प्रक्रियाओं, पथ्यापथ्य, आहार तथा औषधियों के माध्यम से संतुलन को पुनः स्थापित करना ही चिकित्सा है। 

आज समस्त विश्‍व का ध्यान आयुर्वेदीय चिकित्सा प्रणाली की ओर आकर्षित हो रहा है, जिसके तहत उन्होनें भारत की अनेक जडीबूटियों का उपयोग अपनी चिकित्सा में करना शुरू कर दिया है। आयुर्वेदीय चिकित्सा पद्धति की यह विशेषता है कि इनमें रोगों का उपचार इस प्रकार किया जाता है कि रोग जड से नष्ट किया जाए एवं पुन: उत्‍पति न हो। 

आयुर्वेद में रोगों की पहचान एवं परीक्षण विभिन्न प्रश्‍नों और आठ परीक्षणों, जैसे नाडी, मूत्र, मल, जिहवा, शब्द(आवाज) स्पर्श्‍ा, नेत्र, आकृति द्वारा की जाती है।

आयुर्वेद मानव को लघु ब्रह्‌माण्ड (यथा पिण्डे तथा ब्रह्‌माण्ड) की प्रतिकृति के रूप में मानता है। इस पद्धति में चिकित्सा व्यक्तिपरक होती है। किसी भी व्यक्ति के लिए औषधिका नुस्खा लिखते हुए उसकी शारीरिक तथा मानसिक स्थिति, प्रकृति, लिंग, आयु, चयापचय (अग्नि) कार्य व्यवहार की प्रकृति, निद्रा तथा आहार आदि अन्य घटकों पर विचार करना आवश्‍यक है। आयुर्वेद चिकित्सा के दो प्रकार है (क) स्वास्थ्य संरक्षण एवं (ख) रोगहरण । स्वास्थ्य संरक्षण के भाग को आयुर्वेद में स्वस्थवृत्त कहा जाता है तथा इसमें व्यक्तिगत स्वास्थ्य विज्ञान नियमित दिन चर्या, उचित सामाजिक व्यवहार तथा रसायन सेवन जैसे कायाकल्प करने वाली वस्तुएं/भोजन और रसायन औषधियां आदि आते है, रोगहर चिकित्सा में औषधियों का प्रयोग, विशि‍ष्ट आहार और जीवनचर्या शामिल है, जिससे उत्पन्न रोग को ठीक किया जाता है।

आयुर्वेद की विशेषताएं:-

 संहिताकाल (1000 ई0 पूर्व0) के दौरान आयुर्वेद का आठ विश्‍ोष शाखाओं में विकास हुआ, जिसके कारण इसे अष्टांग आयुर्वेद कहा जाता है,वे है:

कायचिकित्सा (इंटर्नल मेडिसिन)

कौमारभृत्य (पैडिएट्रिक्स)

ग्रह चिकित्सा (साइक्येट्री)

शालाक्य (ई.एन.टी)

शल्य तंत्र (सर्जरी)

विष तंत्र (टाक्सिकॉलोजी)

रसायन (जिरेएट्रिक्स)

वाजीकरण (साइंस ऑफ विटिलिटि)

उनके नाम-स्मरणसे भी विशेष फलकी प्राप्ति होती है- 

(१) ब्रह्मा, (२) दक्षप्रजापति, (३) भगवान् भास्कर, (४) अश्विनीकुमार, (५) देवराज इन्द्र, ३) महर्षि कश्यप, (७) महर्षि अत्रि, (८) महर्षि भृगु, १) महर्षि अंगिरा, (१०) महर्षि वसिष्ठ, (११) महर्षि अगस्त्य, (१२) महर्षि पुलस्त्य, (१३) आयुर्वेदाचार्य दशानन (रावण), (१४) ऋषि असित,(१५) ऋषि गौतम, (१६) ऋषि भरद्वाज, (१७) आचार्य धन्वन्तरि, (१८) आचार्य पुनर्वसुआत्रेय, (१९) आचार्य अग्निवेश, (२०) आचार्य भेल, (२१) आचार्य जतूकर्ण, (२२) आचार्य पराशर, (२३) आचार्य हारीत, (२४) आचार्य क्षारपाणि, (२५) आचार्य निमि, (२६) आचार्य भद्र शौनक, (२७) आचार्य कांकायन, (२८) आचार्य गार्ग्य, (२९) आचार्य गालव, (३०) आचार्य सात्यकि, (३१) आचार्य औपधेनव, (३२) आचार्य सौरभ्र, (३३) आचार्य पौष्कलावत, (३४) आचार्य करवीर्य, (३५) आचार्य गोपुररक्षित, (३६) आचार्य वैतरण, (३७) आचार्य भोज, (३८) आचार्य भालुकी, (३९) आचार्य दारुक, (४०) आचार्य कौमारभृत्य, (४१) आचार्य जीवक, (४२) चिार्य काश्यप, (४३) आचार्य उशना, (४४) आचार्य बृहस्पति, (४५) आचार्य पतञ्जलि, (४६) ऋषि वामदेव (४७) आचार्य सिद्ध नागार्जुन आदि। आयुर्वेद के इन आचार्यों  परिवार कोटिशः प्रणाम करता है।

उपरोक्त आचार्यों, आयुर्वेदाचार्यों द्वारा लिखे ग्रन्थों के अनुसार ही दवाएं निर्मित की जाती हैं।

विशेषकर अमृतम च्यवनप्राश बहुत बेहतरीन है। ये 5000 साल प्राचीन पध्दति से निर्मित होने के कारण महंगा बहुत है। इसमें त्रिफला ।रब्बा, आंवला, हरिक्ति का मिश्रण है। आयुर्वेद में बताया गया है कि ब्रहमा जी ने दक्ष प्रजापति को आयुर्वेद का ज्ञान दिया था दक्ष प्रजापति 18575 साल से पूर्व पैदा हुऐ थे । धार्मिक मान्यताओं के अनुसार संसार की प्राचीनतम् पुस्तक ऋग्वेद है। विभिन्न धार्मिक विद्वानों ने इसका रचना काल ५,००० से लाखों वर्ष पूर्व तक का माना है। इस संहिता में भी आयुर्वेद के अतिमहत्त्व के सिद्धान्त यत्र-तत्र विकीर्ण है। चरक, सुश्रुत, काश्यप आदि मान्य ग्रन्थकार आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद मानते हैं। किंतु अर्थववेद स्वयं ही बहुत बाद में या आधुनिक समय मे लिखा गया है। पहले केवल तीन वेद ही थे और अर्थववेद बाद में लिखा गया है इसलिए इसमें आयुर्वेद को भी जोड़ा गया है। धार्मिक मतानुसार इस शास्त्र के आदि आचार्य अश्विनीकुमार माने जाते हैं जिन्होने दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सिर जोड़ा था। अश्विनी कुमारों से इंद्र ने यह विद्या प्राप्त की। इंद्र ने धन्वंतरि को सिखाया। काशी के राजा दिवोदास धन्वंतरि के अवतार कहे गए हैं। उनसे जाकर सुश्रुत ने आयुर्वेद पढ़ा। अत्रि और भारद्वाज भी इस शास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं। आय़ुर्वेद के आचार्य ये हैं— अश्विनीकुमार, धन्वन्तरि, दिवोदास (काशिराज), नकुल, सहदेव, अर्कि, च्यवन, जनक, बुध, जावाल, जाजलि, पैल, करथ, अगस्त्य, अत्रि तथा उनके छः शिष्य (अग्निवेश, भेड़, जातूकर्ण, पराशर, सीरपाणि, हारीत), सुश्रुत और चरक।                         

आयुर्वेद का काल-विभाजन

आयुर्वेद के इतिहास को मुख्यतया तीन भागों में विभक्त किया गया है -

संहिताकाल :संहिताकाल का समय ५वीं शती ई.पू. से ६वीं शती तक माना जाता है। यह काल आयुर्वेद की मौलिक रचनाओं का युग था। इस समय आचार्यो ने अपनी प्रतिभा तथा अनुभव के बल पर भिन्न-भिन्न अंगों के विषय में अपने पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया। आयुर्वेद के त्रिमुनि-चरक, सुश्रुत और वाग्भट, के उदय का काल भी सं हिताकाल ही है। चरक संहिता ग्रन्थ के माध्यम से काययिकित्सा के क्षेत्र में अद्भुत सफलता इस काल की एक प्र मुख विशेषता है।

व्याख्याकाल :इसका समय ७वीं शती से लेकर १५वीं शती तक माना गया है तथा यह काल आलोचनाओं एवं टीकाकारों के लिए जाना जाता है। इस काल में संहिताकाल की रचनाओं के ऊपर टीकाकारों ने प्रौढ़ और स्वस्थ व्याख्यायें निरुपित कीं। इस समय के आचार्य डल्हड़ की सुश्रुत संहिता टीका आयुर्वेद जगत् में अति महत्वपूर्ण मानी जाती है। शोध ग्रन्थ ‘रसरत्नसमुच्चय’ भी इसी काल की रचना है, जिसे आचार्य वाग्भट ने चरक और सुश्रुत संहिता और अनेक रसशास्त्रज्ञों की रचना को आधार बनाकर लिखा है।

विवृतिकाल :इस काल का समय १४वीं शती से लेकर आधुनिक काल तक माना जाता है। यह काल विशिष्ट विषयों पर ग्रन्थों की रचनाओं का काल रहा है। माधवनिदान, ज्वरदर्पण आदि ग्रन्थ भी इसी काल में लिखे गये। चिकित्सा के विभिन्न प्रारुपों पर भी इस काल में विशेष ध्यान दिया गया, जो कि वर्तमान में भी प्रासंगिक है। इस काल में आयुर्वेद का विस्तार एवं प्रयोग बहुत बड़े पैमाने पर हो रहा है। स्पष्ट है कि आयुर्वेद की प्राचीनता वेदों के काल से ही सिद्ध है। आधुनिक चिकित्सापद्धति में सामाजिक चिकित्सा पद्धति को एक नई विचारधरा माना जाता है, परन्तु यह कोई नई विचारधारा नहीं अपितु यह उसकी पुनरावृत्ति मात्र है, जिसका उल्लेख 2500 वर्षों से भी पहले आयुर्वेद में किया गया है।

वेदों में आयुर्वेद : वेद प्राचीन काल से ही मानव-सभ्यता के प्रकाश-स्तम्भ रहे हैं। वेद की परम्परा में रुद्र को प्रथम वैद्य स्वीकार किया गया है। ‘यजुर्वेद’ में कहा गया है कि 'प्रथमो दैव्यों भिषक'। तथा इसी प्रकार ऋग्वेद में भी उल्लिखित है कि ‘भिषक्तमं त्वां भिषजां शृणोमि'। और आयुर्वेद ग्रन्थो की परम्परा में ब्रह्मा आयुर्वेद का प्रथम उपदेष्टा है। वेदों में अश्विनों और रुद्रदेवता के अतिरिक्त अग्नि, वरुण, इन्द्र, अप् तथा मरुत् को भी 'भिषक्' शब्द से अभिनिहित किया गया है। परन्तु मुख्य रूप से इस शब्द का सम्बन्ध रुद्र और अश्विनौ के साथ ही है। अतः वेद आयुर्वेदशास्त्र के लिए एक महत्त्वपूर्ण संकेतक तथा स्रोत हैं।

ऋग्वेद में आयुर्वेद :आयुर्वेद के महत्वपूर्ण तथ्यों का वर्णन ऋग्वेद में उपलब्ध है। ऋग्वेद में आयुर्वेद का उद्देश्य, वैद्य के गुण-कर्म, विविध औषधियों के लाभ तथा शरीर के अंग और अग्निचिकित्सा, जलचिकित्सा, सूर्यचिकित्सा, शल्यचिकित्सा, विषचिकित्सा, वशीकरण आदि का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। ऋग्वेद में 67 औषधियों का उल्लेख मिलता हैं। अतः आयुर्वेद की दृष्टि से ऋग्वेद बहुत उपयोगी है।

यजुर्वेद में आयुर्वेद :यजुर्वेद में आयुर्वेद से सम्बन्धित निम्नांकित विषयों का वर्णन प्राप्त होता है : विभिन्न औषधियों के नाम, शरीर के विभिन्न अंग, वैद्यक गुण-कर्म चिकित्सा, नीरोगता, तेज वर्चस् आदि। इसमें 82 औषधियों का उल्लेख दिया गया है। 

सामवेद में आयुर्वेद :आयुर्वेद के अध्ययन के रूप में सामवेद का योगदान कम है। इसमें मुख्यतया आयुर्वेद से सम्बन्धित कुछ मन्त्रा में वैद्य, तथा अत्यल्प रोगों की चिकित्सा का वर्णन प्राप्त होता है।

अथर्ववेद में आयुर्वेद :आयुर्वेद की दृष्टि से अथर्ववेद का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें आयुर्वेद के प्रायः सभी अंगों एवं उपांगों का विस्तृत विवरण मिलता है। अथर्ववेद ही आयुर्वेद का मूल आधार है। अथर्ववेद में आयुर्वेद से सम्बन्धित विभिन्न विषयों का वर्णन उपलब्ध है जिनमें से मुख्य है- ‘वैद्य के गुण, कर्म या भिषज, भैषज्य, दीर्घायुष्य, बाजीकरण, रोगनाशक विभिन्न मणियां, प्राणचिकित्सा, शल्यचिकित्सा, वशीकरण, जलचिकित्सा, सूर्यचिकित्सा तथा विविध औषधियों के नाम, गुण, कर्म आदि। आयुर्वेद को अर्थवेद में 'भेषज' या 'भिषग्वेद' नाम से जाना जाता है। गोपथ ब्राह्मण में भी अथर्ववेद के मंत्रों को आयुर्वेद से सम्बन्धित बताया गया है। शतपथ ब्राह्मण में यजुर्वेद के एक मंत्र की व्याख्या में प्राण को 'अथर्वा' कहा गया है। इसका अर्थ यह है कि प्राणविद्या या जीवनविद्या आथर्वण विद्या ही है। गोपथ ब्राह्मण के अनुसार ‘‘अंगिरस् का सीधा सम्बन्ध आयुर्वेद तथा शरीर विज्ञान से है। अंगों के रसों अर्थात तत्त्वों का वर्णन जिसमें प्राप्त होता है वह अंगिरस् कहा जाता है। अंगों से जो रस निकलता है वह अंगरस है और उसी को अंगिरस् कहा जाता है।अथर्ववेद को वैदिक जगत् में क्षत्रवेद, ब्रह्मवेद, भिषग्वेद तथा अर्घिंरोवेद इत्यदि नामों से भी जाना जाता है। स्पष्ट है कि वेदों में आयुर्वेद से सम्बन्धित सैकड़ों मन्त्रों का वर्णन है, जिसमें विभिन्न रोगों की चिकित्सा का उल्लेख है। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद - इन चारों वेदों में अथर्ववेद को ही आयुर्वेद की आत्मा माना गया है। अथर्ववेद में स्वस्त्ययन मंगलकर्म, उपवास, बलिदान, होम, नियम, प्रायश्चित और मन्त्र आदि से भी चिकित्सा करने को कहा गया है। अथर्ववेद में सर्वाधिक 289 औषधियों का उल्लेख किया गया है। इस प्रकार ज्ञात होता है कि आयुर्विषययक औषधियों का विस्तृत विवरण अथर्ववेद में ही पाया जाता है।

आयुर्वेद ग्रन्थ एवं उनके रचनाकार

आयुर्वेद के मूल ग्रन्थों में काश्यप संहिता, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, भेलसंहिता तथा भारद्वाज संहिता में से काश्यप संहिता को अति प्राचीन माना गया है। इसमें महर्षि कश्यप ने शंका समाधान की शैली में दुःखात्मक रोग, उनके निदान, रोगों का पश्रिहार तथा रोग परिहार के साधन (औषध) इन चारों विषयों का भी प्रकार प्रतिपादन किया गया है। इसके पश्चात जीवक ने काश्यप संहिता को संक्षिप्त कर ‘वृद्ध जीवकीय तंत्र‘ नाम से प्रकाशित है। इसके ८ भाग हैं-

1. कौमार भृत्य, 2. शल्य क्रिया प्रधान शल्य, 3. शालाक्य, 4. वाजीकरण,

5. प्रधार रसायन, 6. शारीरिक-मानसिक चिकित्सा, 7. विष प्रशमन तथा 8. भूत विद्या।

इसी से यह ‘अष्टांग आयुर्वेद' कहताला है। पुनः इन विषयों को प्रतिपादन के अनुसार आठ स्थानों में विभक्त किया गया। इनमें सूत्र स्थान में 30, निदान स्थान में 12, चिकित्सा स्थान में 30, सिद्धि में 12, कल्प स्थान में 12, तथा खिल स्थान/भाग में 80 अध्याय है। इस प्रकार आचार्य जीवक ने कुल 200 अध्यायों में वृद्ध जीवकीय तंत्र को संग्रहीत कर आर्युविज्ञान का प्रचार प्रसार किया। वृद्ध जीवकीय तंत्र नेपाल के राजकीय पुस्तकालय में उपलब्ध है।

ईसा पूर्व 2350-1200 के लगभग शालिहोत्र नामक अश्व विशेषज्ञ हुए है जिन्हें पशु चिकित्सा का ज्ञान था। इन्होने हेय आयुर्वेद, अश्व प्राशन तथा अश्व लक्षण शास्त्र की रचना की। इसे ‘शालिहोत्र संहिता‘ भी कहा जाता है। इसमें 12000 श्लोक है। इन्हें विश्व का प्रथम पशु चिकित्सक माना जाता है।

मुनि पालकाप्य का काल 1800 वर्ष ईसा पूर्व माना जाता है जिन्हें विशाल ग्रन्थ 'हस्ति आयुर्वेद' की रचना की थी। इसमें चार खण्ड तथा 152 अध्याय है। महाभारत काल में आयुर्वेद अपने चरम पर माना गया है। यह काल 1000 से 900 वर्ष ईसा से पूर्व का माना जाता है। इस समय में नकुल, अश्व चिकित्सा तथा सहदेव गोचिकित्सा के विशेषज्ञ थे। इस काल में विभिन्न प्रकार की औषधियों से घायल सैनिकों के उपचार का वर्णन मिलता है।

चरक संहिता के रचियता महर्षि चरक, महर्षि आत्रेय, महामेघा, अग्निवेश तथा दृढबल रहे है मगर महर्षि चरक का नाम विशेष रूप से प्रतिष्ठित हो गया। ये संहिताकार ऋषि एक उच्च कोटि के वैज्ञानिक थे। महर्षि चरक ने वनस्पतिजन्य विभिन्न दवाओं के निर्माण एवं उन्हें लिपिवद्ध करने के अतिरिक्त उनका घूम-घूमकर प्रचार-प्रसार भी किया। इसी कल्याकारी विचरण क्रिया से उनका नाम चरक विश्व प्रसिद्ध हो गया। चरक संहिता के अध्ययन से पूरी जीवन शैली आहार चर्या ऋतु चर्या, रात्रि चर्या आदि का सम्यक ज्ञान हो जाता है तथा तदनुसार यदि व्यक्ति अनुसारण करे तो वह सदा निरोग रह सकता है। यह काल गुप्त वंश के शासन काल का रहा है व सन् 300 से 500 ई0 के बीच का है।

आचार्य सुश्रुत प्राचीन काल के एक उच्च कोटि के आयुर्वेदाचार्य एवं शल्य चिकित्सक थे। सुश्रत महर्षि विश्वामित्र के पुत्र थे तथा इन्होने धन्वन्तरि से शल्य-शास्त्र की शिक्षा ग्रहण की थी। ऐसा विश्वास है कि पृथ्वी पर शल्य तन्त्र के जनक यही सुश्रुत है। इन्होने भी एक ग्रन्थ की रचना की जिसका शीर्षक ‘सुश्रुत संहिता‘ रखा। इस पुस्तक में 5 अध्याय हैं जिनमें सूत्र स्थान, निदान स्थान, शरीर स्थान, चिकित्सा स्थान तथा कल्प स्थान आदि शामिल है। सुश्रुत के अनुसार मन एवं शरीर को पीड़ित करने वाली वस्तु को 'शल्य' कहा जाता है। तथा इस शल्य को निकालने के साधन 'यंत्र' कहलाते है। आयार्य सुश्रुत ने अपने इस ग्रंथ में 100 से भी अधिक शल्य यंत्रों का वर्णन किया है तथा उनके गुणों के विषय में विस्तार से प्रकाश डाला है। आचार्य सुश्रुत आँखों के मोतियाबिन्द की शल्य क्रिया के विशेषज्ञ थे। यदि माता के गर्भ से शिशु योनि मार्ग से न आता हो तो गर्भस्थ शिशु को शल्य क्रिया द्वारा माता के गर्भ से सुरक्षित निकालने की कई विधियों सुश्रुत अच्छी तरह जानते थे। आजकल जिन यंत्रों का उपयोग शल्य क्रिया में होता है उनमें से अधिकांश यंत्रों का वर्णन सुश्रुत संहिता में मिलता है। आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद कहा जाता है। आयुर्वेद तथा शल्य-चिकित्सा शास्त्र के आचार्य गणों का जगत पर महान उपकार है। इनके नाम इस प्रकार है।

ब्रहमा  --  आचार्य सिद्ध नागार्जुन

दक्ष प्रजापति  --  आचार्य क्षारपाणि

भगवान भाष्कर  --  आचार्य निमि

अश्वनी कुमार  --  आचार्य भद्रशौनक

इन्द्र  --  आचार्य काकांयन

महर्षि कश्यप  --  आचार्य गार्म्य

महर्षि अत्रि  --  आचार्य गालव

महर्षि भृगु  --  आचार्य सात्यकि

महर्षि अंगिरा  --  आचार्य औषधेनव

महर्षि वरिष्ठ  --  आचार्य सौरभ

महर्षि अगस्त्य  --  आचार्य पौठक लावत

महर्षि पुलस्त्य  --  आचार्य करवीर्य

ऋषि वाम देव  --  आचार्य गोपरु रंक्षित

ऋषि गौतम  --  आचार्य वैतरण

ऋषि असित  --  आचार्य भोज

ऋषि भरद्वाज  --  आचार्य भालुकी

आचार्य धन्वन्तरि  --  आचार्य दारूक

आचार्य पुनर्वसु आत्रेय  --  आचार्य कौमार भृत्य

आचार्य अग्निवेश  --  आचार्य जीवक

आचार्य भेल  --  आचार्य काश्यप

आचार्य जतूकर्ण  --  आचार्य उशना

आचार्य पाराशर  --  वृहस्पति

आचार्य हारीत  --  आचार्य पतजंलि

आयुर्वेद के इतिहास पुरूष जीवक कौमारभच्च का कालखण्ड लगभग 500 वर्ष ई0 पू0 माना जाता है, जब मगध के सम्राट बिम्विसार थे। सम्राट बिम्विसार को भगन्दर हो गया। परन्तु जीवक द्वारा निर्मित औषध के एक ही लेप से सम्राट ने रोग से मुक्ति पा ली। इसी प्रकार जीवक ने नगर सेठ की खोपड़ी का सफल आपरेशन (शल्य क्रिया) कर फिर सी दिया व उसमें से मवाद और कीड़े निकाल दिये। सभवतः यह मस्तिष्क की पहल शल्य क्रिया होगी। जीवक की शल्य चिकित्सा के विषय में और भी प्रमाण मिलते है। उन्होने वाराणसी के नगर सेठ के पेट से आँतों की गाँठों का शल्य क्रिया द्वारा सफल उपचार किया। पेट को चीरकर आँतें बाहर निकाली तथा आँतों के खराब भाग को काटकर फैंक दिया तथा शेष को पुनः सीकर ठीक कर दिया। जीवक ने भगवान बुद्ध का भी उपचार किया था।

आयुर्वेद में जिन तीन आचार्यो की गणना मुख्यरूप से होती है उनमें चरक, सुश्रुत के बाद वाग्भट का नाम आता है। इन्होने अष्टांग हृदय ग्रन्थ की रचना की। इनका कालखण्ड छठी सदी का माना जाता है। यह पूरा ग्रन्थ सूत्र स्थान, शरीर स्थान, निदान स्थान, चिकित्सा स्थान, कल्प स्थान तथा उत्तर स्थान आदि में विभक्त है। यह ग्रन्थ आयुर्वेद का सार माना जाता है। आचार्य वाग्भट का कहना है कि इस ग्रन्थ में कोई कपोल कल्पित बात नहीं कही गयी है बल्कि यह ग्रन्थ पूर्वाचार्यों के अभिमतों तथा अनुभव के आधार पर किया गया है। इस ग्रन्थ के पठन-पाठन, मनन एवं प्रयोग करने से निश्चय ही दीर्घ जीवन आरोग्य धर्म, अर्थ, सुख तथा यश की प्राप्ति होती है।

आचार्य माधव ने एक विशिष्ट ग्रन्थ का लेखन किया जिसका नाम ‘रोग विनिश्चय‘ रखा। यह ग्रन्थ माधव निदान के नाम से प्रसिद्ध है। आचार्य माधव ने रोग ज्ञान के पाँच साधन बताये है। निदान, पूर्वरूप, रूप, उपशय तथा सम्प्राप्ति। आचार्य माधव का समय छठी सदी के अन्त का बताया जाता है। आचार्य माधव ने अतिसार, पाण्डुरोग, क्षय रोग आदि का विस्तृत वर्णन किया है। आचार्य शार्ङ्गधर को नाड़ी शास्त्र का विशेषज्ञ माना गया है। इन्होने 13 वीं - 14वीं सदी के दौरान दो ग्रन्थों ‘शार्ङ्गधर संहिता' तथा 'शार्ङ्गधर पद्धति‘ की रचना की। आचार्य हाथ में कच्चे धागे के सूत्र के एक सिरे को बांधकर दूसरे सिरे को पकड़कर नाड़ी गति का ज्ञान करके रोग एवं रोगों के सम्बन्ध में सब कुछ सत्य-सत्य बना देते थे।

आयुर्वेद की आचार्य परम्परा में श्री भावमिश्र का नाम भी विशेष महत्व रखता है। इन्होने भाव प्रकाश ग्रन्थ की रचना की। इनका कालखण्ड 16वीं सदी का माना गया है। इन्होंने समस्त व्याधियों को दो भागों में विभक्त किया- (1) कर्मज अर्थात जो दुष्कर्म के परिणाम स्वरूप फलित होती है तथा भोग/प्रायश्चित से उनका विनाश होता है। (2) इसके विपरीत दूसरे प्रकार की दोषज व्यधियाँ हैं जो मिथ्या आहार-विहार करने से कुपित हुए बात, पित्त एवं कफ से होती है।

सोलहवीं शताब्दी में आंध्रप्रदेश के आचार्य बल्लभाचार्य द्वारा तेलुगू लिपि में लिखी गयी पुस्तक वैद्यचिन्तामणि का आयुर्वेद में विशिष्ट स्थान है। यह ग्रन्थ 26 भागों में विभक्त है। मंगलाचारण के बाद पंच निदान के साथ-साथ अष्ट स्थान परीक्षा का विवरण है जिसमें पहले नाड़ी परीक्षा है। नाड़ी का जितना विस्तार से वर्णन यहां मिलता है उतना अन्य किसी प्राचीन ग्रन्थ में शायद नहीं मिलता। हाथ के साथ-साथ पाँव के मूल नाड़ी परीक्षा, स्त्रियों के बायें तथा पुरूषों के दांये हाथ की नाड़ी परीक्षा का विधान बताया गया है। प्रत्येक रोग की चिकित्सा के लिए चूर्ण, काषाय, वटी, अवलेह, घृत, तेल, अर्जन तथा धूप का उल्लेख है। ग्रन्थ के तेइस भागों में विभिन्न प्रकार के रोगों को वर्णन है व क्षय रोग के उपचार का विस्तृत उल्लेख मिलता है।

वैद्य लोलिम्बराज का समय 17वीं शताब्दी के पूर्वार्थ का माना गया है। इन्होने 'वैद्य जीवन' नामक शास्त्र की रचना की। लोलिम्बराज कवित्व सम्पन्न व्यक्ति थे। उन्होने वैद्य-जीवन पाँच भागों में विभक्त है इसमें ज्वर, ज्वरातिसार, ग्रहणी, कास-श्वास, आमवात, कामला, स्तन्यदुष्टि, प्रदर, क्षय, व्रण, अम्लपित्त, प्रमेह आदि रोगों तथा वाजीकरण और विविध रसायनों का उल्लेख है। वैद्य लोलिम्बराज रोगी के लिए पथ्य सेवन अतिहितकर बताते हुए कहते हैं कि रोगी यदि पथ्य सेवन से रहे तो उसे औषध सेवन से क्या प्रयोजन।

आधुनिक काल में आयुर्वेद :ब्रिटिश राज ने आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति को अवैज्ञानिक, रहस्यमयी और केवल एक धार्मिक विश्वास माना। इसके विपरीत अंग्रेजों ने एलोपैथी को राज्य का संरक्षण प्रदान किया। परिणामस्वरूप आयुर्वैदिक चिकित्सा पद्धति को नष्ट करने का प्रयास भी किया गया। इसके परिणामस्वरूप अनेकों महान आयुर्वेदिक ग्रन्थ, वैद्य और प्रक्रियाएँ दबकर रह गयीं। आयुर्वेद उन ग्रामीण क्षेत्रों में जीवित रहा जो 'आधुनिक सभ्यता' की पहुँच से दूर थे। वर्ष 1835 में कलकत्ता मेडिकल कॉलेज में आयुर्वेद के शिक्षण कार्य को निलंबित कर दिया गया था। हालाँकि औपनिवेशिक शासन के दौरान कई प्राच्यविदों ने वैदिक ग्रंथों को पुनर्प्राप्त करके आयुर्वेद को अप्रत्यक्ष रूप से लाभान्वित भी किया। प्राच्यविदों ने आयुर्वेद को पुनर्जीवित करने में बड़ा योगदान दिया था।

अंग्रेजी उपनिवेश के विरुद्ध भारत का संघर्ष जब ‘नवजागरण’ का रूप ले रहा था तब उसकी एक लड़ाई चिकित्सा के क्षेत्र में भी लड़ी जा रही थी। इसे ‘आयुर्वेदिक राष्ट्रवाद’ भी कह सकते हैं। यह पुनरुत्थान अनेक रूपों में प्रकट हुआ। पाश्चात्य चिकित्सकीय ढांचे का उपयोग कर आयुर्वेद अपने को बदल रहा था। इस विषय पर कार्य करने वाले विद्वान डैविड आर्नोल्ड के अनुसार आयुर्वेद के मूल संस्कृत ग्रंथों के अंग्रेजी अनुवाद ने इस आंदोलन को शास्त्रीय वैधता प्रदान की और उसे विशाल समुदाय तक पहुंचाया, वहीं प्रभावकारी सांस्थानिक ढांचों में से एक का अनुसरण करते हुए आयुर्वेद ने औषधालयों की स्थापना करते हुए अपनी जड़े मजबूत की। १९वीं सदी के उत्तरार्द्ध एवं २०वीं सदी के पूर्वार्ध में आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति से संबंधित पुस्तिकाओं, पत्रिकाओं, संदर्भ-ग्रंथों एवं सम्मेलनों की एक लंबी शृंखला देखने मिलती है। इसका मूल उद्देश्य भारत में पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति (अथवा ऐलोपैथी) के बढ़ते प्रभुत्व के विरुद्ध स्वदेशी चिकित्सा पद्धति के रूप में आयुर्वेद को पुनर्जीवित एवं पुनः स्थापित करना था। नए उभरते सुधारवादी एवं राष्ट्रवादी अभिजात्य वर्ग का यह मानना था कि यदि हम निकट भविष्य में सरकार एवं राज्य सत्ता की कमान अपने हाथों में लेना चाहते हैं तो हमें हर उस चीज का, जिससे जनता का सीधा सरोकार है, स्वदेशीकरण करना होगा। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की इस विचारधारा का एक महत्वपूर्ण अंग चिकित्सकीय राष्ट्रवाद भी था जो भारत में स्वदेशी चिकित्सा प्रणालियों के प्रति सन्नद्ध था। चिकित्सकीय राष्ट्रवाद की इसी अवधारणा के अंतर्गत आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति एक 'विशुद्ध' 'स्वदेशी' चिकित्सा प्रणाली के प्रमुख दावेदार के रूप में उभरी।

पहला आयुर्वेदिक औषधालय १८७८ में कविराज चंद्र किशोर सेन ने कलकत्ते में खोला था उसके बीस साल बाद तेलुगु वैद्य पंडित डी. गोपालाचारलू ने मद्रास में प्रथम औषधालय की स्थापना की। मुद्रण तकनीक का प्रयोग करते हुए आयुर्वेदिक चिकित्सा लगातार लोकप्रिय हो रहा थी। यह एक अखिल भारतीय परिघटना (फेनामेना) थी। उत्तरी भारत में यशोदा देवी ने महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने प्रयाग में जहाँ ‘स्त्री-औषधालय’ की स्थापना की वहीं उनकी इस विषय पर लिखी १०८ किताबें बताई जाती हैं। 1907 अखिल भारतीय आयुर्वैदिक कांग्रेस की स्थापना हुई। इसके वार्षिक सम्मेलनों ने आयुर्वेद के पुनरुत्थान में महती भूमिका अदा की। औपनिवेशिक शासन के अधीन तत्कालीन संयुक्त प्रांत (आज का उत्तर प्रदेश) आयुर्वेद के इस समकालीन उभार का एक प्रमुख केंद्र था। संयुक्त प्रांत के अलग-अलग भागों से कोई 30 आयुर्वेदिक पत्र-पत्रिकाएँ इस दौर में प्रकाशित हो रही थीं जिनमें से कुछ प्रमुख हैं- धन्वन्तरि, वैद्य सम्मलेन त्रिका, सुधानिधि, अनुभूत योगमाला, आयुर्वेद प्रचारक, वैद्य, राकेश, आयुर्वेद केसरी, इत्यादि। जगन्नाथ शर्मा, किशोरी दत्त शास्त्री, शांडिल्य द्विवेदी, रूपेन्द्रनाथ शास्त्री, जगन्नाथ प्रसाद शुक्ल, गणनाथ सेन, शंकर दाजी पदे, आदि इस आन्दोलन के केंद्र में थे।

आयुर्वेद की प्राचीन यात्रा अनेक परिवर्तनों को पार करके बीसवीं शती तक पहुँची। इस काल में हाराचन्द्र चक्रवर्ती, योगीन्द्रनाथ सेन, ज्योतिषचन्द्र सरस्वती, दत्ताराम चौबे, जयदेव विद्यालंकार, अत्रिदेव विद्यालंकार, रामप्रसाद शर्मा, गोविन्द घाणेकर, दत्तात्रेय अनन्त कुलकर्णी, लालचन्द्र वैद्य आदि प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य हुए हैं, जिन्होंने आयुर्वेद के मूलतत्वों को बरकरार रखते हुए उन्हें विकसित किया।


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